Saturday 13 October 2018

पिता




 व्रद़्ध पुराना दरख़त खड़ा हैं,
लेकर अपनी टहनी का बोझ,
पत्ते भी अब बड़े हो चले,
जो लिए हुए थे उसकी टोह ..

हवा की ओर मुँह मोड़ चुके हैं,
पाने को सूरज की ओट,
लक्ष्य को पाने की चाह में,
चल पड़े हैं, पकड़ किरणों की पोर...

गिर कर उठना, उठकर सँभलना,
सीख लिया, थामकर समय की डोर,
आशियाना खुशीयों का बना लिया हैं,
धूप के हाथों में, थमा कर जीवन का छोर..

दरख़्त खड़ा सब देख रहा हैं,पगडण्डी पर राह नाप रहा हैं,
बेसबर-सा, मुस्कुरा रहा हैं सुनकर चिडीयों का शोर,
अपने दुख की छाले ढाँपे, खड़ा हुआ हैं भाव विभोर...